जाना हमेशा कष्ट प्रद होता है वह भी उनका जिन्होंने लगभग चार दशक तक दिलों पर राज किया हो , ऐसे चरित्र निभाए हों जो हम खुद में, अपने आस पड़ोस में , अपने वातावरण में सहज देखते हैं और उनको देखकर कभी कभी खुद को पहचानते हैं कि यही तो हूँ, और सोचते हैं मैंने ऐसा क्यों नहीं किया, मैं ऐसा भी तो कर सकता था। जी हाँ ऋषि कपूर को भुलाना बेहद मुश्किल होगा, खासतौर से भारत की महिलाओं के लिए।
मैं यहां उनकी पेड़ों के इर्द-गिर्द स्वेटर की बाहें ऊंची किए नाचते हुए लवर बॉय की छवि की बात नहीं कर रही हूँ , बल्कि आपका ध्यान उस ओर खींचना चाहती हूँ जहां उन्हीं की छवि ने उन्हीं के कार्यों को ढक लिया। जमाना उनके चॉकलेटी रोल भूमिकाएं याद करता है लेकिन यह भूल जाता है कि 100 से अधिक फिल्मों में काम करने वाले ऋषि की फिल्मों में कोई ऐसा चरित्र नहीं रहा जो भारत की पुरुषवादी छवि से मेल खाता हो।
फिल्म बॉबी में जब वे एक विधर्मी गरीब लड़की को चाहते हैं तो दो विद्रोह करते हैं एक अपने परिवार से दूसरा धार्मिक पूर्वाग्रह से और दोनों में ही वे बॉबी को पूरी अहमियत देते हैं। आपको बॉबी का कोई ऐसा दृश्य याद नहीं होगा जिसमें पिता निर्देशक की उपस्थिति में भी ऋषि ने नायिका पर हावी होने की कोशिश की हो या उनके पक्ष को नजरअंदाज किया हो।
फिल्म प्रेम रोग में वे बड़ी कुशलता से अपने प्रेम को छुपाते हैं और अंत में उस व्यवस्था को चुनौती देते हैं जो सती प्रथा जैसी व्यवस्था को समर्थन देती थी। यह इन्हीं गिनी फिल्मों में से एक है जिसमें विधवा पुनर्विवाह जैसी सामाजिक कुरीति को इस दृढ़ता से उठाया गया।
फिल्म तवायफ़ में वह फिर एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम चरित्र निभाते हैं जिसमें वे प्रत्येक समाज में तिरस्कृत और बहिष्कृत चरित्र के विवाह व सिर उठाकर स्वीकार करने की भूमिका को जिस सहजता से निभाते हैं यह भी भारत में बेहद चुनौतीपूर्ण भूमिका थी। फिल्म के एक संवाद में बहिष्कृत क्षेत्र की तरफ आने वाले एक तरफा रास्ते की ओर इशारा करती एक तवायफ़ को अपनी खामोशी, वह मात्र चेहरे के भावों से जवाब देते ऋषि कपूर महिलाओं की आवाज बन कर उभरे थे ।
उनकी बेहद लोकप्रिय फिल्म च
चाँदनी में भी फिल्म के प्रारंभ और अंत दोनों में वे कहीं भी स्वयं को चांदनी पर थोपते नजर नहीं आये।बल्कि उसके विचारों उसकी भावनाओं को बराबर का सम्मान देते हैं। और फिल्म के अंत में उनके मित्र के स्थान पर उनसे शादी करने का निर्णय भी उनका नहीं था बल्कि नायिका का निर्णय था ।
फिल्म दामिनी में शायद उन्होंने अपने जीवन का सबसे जटिल रोल किया था । वे पति, बड़े भाई, और बड़े बेटे के तिराहे पर खड़े एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में उलझे दिखाई दिए और तीनों ही रास्ते छोड़ नहीं सकते थे। लेकिन अंत में वह न्याय और अपनी पत्नी के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। और उनकी यह दृढ़ता भारतीय पुरुष समाज के लिए एक उत्तर भी निर्मित करती है कि सही और गलत में से सही का समर्थन ही सही होता है।
इसी तरह फिल्म प्रेम ग्रंथ में वह एक ब्राह्मण वर्ग युवा है जो एक दलित लड़की से प्रेम करते हैं और तमाम रूढ़ियों, अंधविश्वासों और नायिका के साथ हुए अत्याचारों और बलात्कार को उसका दोष ना मानते हुए उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। फिल्म के अलग-अलग दृश्यों में कहीं पिता से, कहीं समाज से और कहीं खुद से लड़ते ऋषि कपूर ने इन दृश्यों में जान फूंक दी थी। क्योंकि इनमें लड़ाई दो तरफा थी ,भीतर से भी और बाहर से भी ।पहले वे खुद को जीतते हैं और फिर समाज को।
एक ब्रेक के बाद जब उन्होंने चरित्र अभिनय करने प्रारंभ किए तो यह साबित किया कि वे किस रेंज के अभिनेता हैं । फिल्म अग्निपथ में राऊफ़ लाला से लेकर 102 नॉट आऊट में बेटे के इंतजार में स्वयं में कैद एक पिता की भूमिका तक उनके भीतर छिपी बहुमुखी प्रतिभा उभरकर सामने आई। फिल्म मुल्क में उन्होंने एक उदारवादी मुस्लिम चरित्र निभाया जो एक ओर अपनी पहचान के लिए लड़ रहा है और दूसरी ओर अपनी बहू के सम्मान के लिए। इसी तरह फिल्म दो दूनी चार में वे मध्यम वर्ग के प्रतीक चिन्ह के रूप में उभर कर सामने आए लेकिन यहां भी वे अपनी पत्नी अपनी बेटी वह अपनी बहन के पक्ष में अपना सर्वस्व अर्पित कर देने वाले पुरुष के रूप में उभर कर सामने आए।
भारत की आधी आबादी के लिए जो निर्णायक चरित्र ऋषि कपूर ने निभाए वह सदैव उसके लिए याद किए जाएंगे। और वह भी उस समय जब वह एक बडे स्टार भी थे। पुरुष प्रधान फिल्मों के लगभग स्थाई भारतीय आकाश में स्त्री प्रधान फिल्मों में इंद्रधनुष के रूप में ऋषि कपूर हमेशा याद किए जाएंगे।
वे अपने किरदारों में रथ का पहिया उठाए अभिमन्यु सरीखे दिखाई पड़ते हैं बस फर्क इतना है इस रण में यह अभिमन्यु जीता है।
डॉ भारती प्रकाश