वर्तमान में नैतिकता का पतन ...



यदि लोगों के हृदय कपट, पाखंड, द्वेष, छल आदि दुर्भावों से भरे रहें तो उससे अदृश्य लोक एक प्रकार की आध्यात्मिक दुर्गन्ध से भर जाते हैं जैसे वायु के दूषित, दुर्गन्धित होने से हैजा आदि बीमारियाँ फैलती हैं वैसे ही पाप वृत्तियों के कारण सूक्ष्म लोकों का वातावरण गंदा हो जाने से “युद्ध, “महामारी, दारिद्र, अर्थ संकट, दैवी प्रकोप आदि उपद्रवों का आविर्भाव होता है”।संसार की सुख शान्ति इस बात के ऊपर निर्भर है कि प्रेम, दया, सहानुभूति, उदारता और न्याय का व्यवहार अन्य लोगों के साथ किया जावे, जब इस प्रकार के विचार और व्यवहार की अधिकता होती है तो संसार में ईश्वरीय कृपा के सुन्दर आनन्ददायक परिणाम दिखाई पड़ते हैं सब लोग सुख शान्ति के साथ प्रफुल्लता मय जीवन बिताते हैं, किन्तु जब स्वार्थ लिप्सा में अन्धे होकर मनुष्य एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयत्न करते हैं तो उसके दुर्गन्धित धुँए से सबका दम घुटने लगता हैं विपत्ति, आपदा और कष्टों के पहाड़ चारों ओर से टूटने लगते हैं। दुख दारिद्र का नंगा नाच होने लगता है।पूरे विश्व में महामारी फैल जाती हैं......।।


वर्तमान समय की चतुर्मुखी दुर्दशा का एक ही कारण “नैतिकता का पतन हो जाना है”। मन की वृत्तियों का स्वार्थ प्रधान हो जाना ही पाप है। यह पाप पिछली एक शताब्दी से तो बहुत अधिक मात्रा में बढ़ गया है। सच्चे धर्म का, हृदय की विशालता का, लोप हो रहा है उसके स्थान पर ‘मजहबी कर्म काण्डों’ को धर्म कहा जाने लगा है। नदी नालों में गोता लगाकर, तस्वीर खिलौनों के दर्शन करके, किसी पुस्तक के पन्ने रट देने, तिलक छाप लगा लेने, शिर मुड़ा लेने, दाढ़ी रखा लेने, खड़ाऊ पहनने, सात बार आचमन कर लेने, तेरह बार हाथ माँज लेने या ऐसे ही किसी अन्य कर्मकाण्ड को करने वाले लोग धर्मध्वजी समझे जाते हैं, चाहे उनके आचरण और विचार कैसे ही क्यों न हों। चाहे उनके हृदय में पाप ही क्यों न भरा हो...।


वेशभूषा और साम्प्रदायिक कर्मकाण्डों के आधार पर धर्म की विवेचना होना इस बात का द्योतक है कि सच्चे धर्म की तो जानकारी भी लोगों को नहीं रही, धर्म के स्थान पर पाखंड विराजमान हो गया, ईश्वर के स्थान पर शैतान की पूजा होने लगी। आज जो मनुष्य जितना धर्मात्मा बनने का ढोंग रचता है परीक्षा करने पर उसका हृदय उतनी ही मात्रा में अनुदारता, निर्दयता, कपट, असत्य, घमंड,वासना और स्वार्थ रूपी पापों से भरा पूरा मिलता है। ढोंग के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहते दिखाई देते हैं पर सच्चे धर्म के लिए कोई कौड़ियाँ भी लगाने को तत्पर नहीं होता। यह सब परिस्थितियाँ बताती हैं कि मानव जाति से धर्म का लोप बहुत बड़ी मात्रा में हो गया है। पाखंड की आड़ में अधर्म का साम्राज्य छाया हुआ है ऐसी दशा में पाप की दुर्गन्ध से अदृश्य लोकों का गंदा होना और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप इस महामारी रूपी कष्ट क्लेशों का आना कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसी स्थिति में ये तो होना ही था ......।।
डॉ सरिता शुक्ला 
(लखनऊ उत्तर प्रदेश)