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मानव जीवन का मंथन भी अत्यंत ही आवश्यक है-
जीवन समुद्र का मंथन करने पर हमारे हाथ तीन रत्न ही लगते हैं (1) प्रेम की साध (2) ज्ञान की खोज और (3) पीड़ित मानवता के प्रति असह्य करुणा। इन तीनों के जितने अमृत कण हमारे हाथ लगते हैं हम उतने ही धन्य बनते जाते हैं।
एकाकीपन की ऊब— कठोर परिश्रम की थकान और उतार−चढ़ावों के विक्षोभों से भरी इस जिन्दगी में सरसता केवल प्रेम में है। समस्त सुख सम्वेदनाओं की अनुभूति एकदम एक ही केंद्र पर एकत्रित है। प्रेम की पुलकन ही आनन्द भरे उल्लास में परिणत होती है। प्रेमी बनकर भले ही हमें कुछ खोना पड़े पर जो पाते हैं वह खोने से लाख करोड़ गुना अधिक होता है।
सत्य महान् है। मनुष्य क्रमशः उसके उच्च शिखर पर चढ़ता जाता है। जो अब तक जाना जा सका वह अद्भुत है, पर इससे क्या जो जानने को शेष पड़ा है वह अनन्त है। सत्य को जानने खोजने और पाने के प्रयासों में ही अब तक की विविध उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं। आगे इसी प्रयास में खुले मस्तिष्क से लगे रहेंगे तो उसे भी प्राप्त कर सकेंगे जो अब तक प्राप्त नहीं किया जा सका।
संसार में सुख न हो सो बात नहीं, पर पीड़ाएँ भी बहुत हैं। अज्ञान और पतन की भटकन कितनी कष्टकर है इस पर जो सहृदयतापूर्वक विचार करेगा उसकी करुणा उमड़े बिना न रहेगी। आत्मा स्वर्ग से उतर कर इस पृथ्वी पर रहने के लिए इसीलिए तो आया है कि वह करुणार्द्र होकर कष्ट पीड़ितों की सेवा करते हुए मानव जीवन का आनन्द ले सके।और वह आनंद ले भी रहा है ।
प्रभु का स्मरण सतत् हो, उनमें समर्पण निरन्तर हो, तो जीवन में अनोखा रूपान्तरण घटित होता है। कुछ ऐसा, जैसे कि मिट्टी फूल बन जाती है और गन्दगी खाद बनकर सुगन्ध में बदल जाती है। मनुष्य के विकार भी शक्तियाँ हैं, जो प्रभु के स्मरण और प्रभु में समर्पण से रूपान्तरित हो जाती हैं। आज जो मनुष्य पशु जैसा दिखता है, वही दिशा परिवर्तित होने से दिव्यता को प्राप्त कर लेता है ।
जीवन का आध्यात्मिक सच यही है कि इसमें जो अदिव्य दिखता है, वह भी बीज रूप में दिव्य है। अपने दृष्टिकोण में यदि आध्यात्मिकता आ सके तो पता चलता है कि वस्तुतः अदिव्य एवं अपवित्र कुछ भी नहीं है। सभी कुछ यहाँ दिव्य है। भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं।
भगवान् का स्मरण और भगवान् में समर्पण होने से कुछ भी घृणा, द्वेष एवं वैर योग्य नहीं रह जाता। सच तो यह है कि जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशु और प्रभु में विरोध नहीं विकास है। यह सत्य आत्मसात हो सके तो फिर आत्मदमन, उत्पीड़न और संघर्ष व्यर्थ हो जाते हैं। भला कहीं कोई अपने को टुकड़ों में तोड़कर सुखी होता है। यह तरीका आत्मशान्ति का नहीं बल्कि आत्मसन्ताप का है। इससे ज्ञान नहीं अज्ञान गहरा होता है।
स्वयं की चेतना के किसी अंश को नष्ट नहीं किया जा सकता। इसका दमन भी अधिक समय के लिए सम्भव नहीं है। क्योंकि जिसका दमन किया गया है, जिसे हराया गया है, उसका निरन्तर दमन करना पड़ता, उसे निरन्तर पराजित करना होता है। यह पूर्ण विजय का मार्ग नहीं है। पूर्ण विजय का मार्ग तो “रूपान्तरण”है। इसमें दमन नहीं बोध है। इसमें गन्दगी को हटाना नहीं उसे खाद बनाना होता है। परमात्मा का निरन्तर स्मरण और उनमें सतत् समर्पण ही वह रसायनशास्त्र है, जिससे यह सम्भव है।अत: इसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण संभव हो सकता है।
डॉ सरिता देवी शुक्ला
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)