कोरोना वायरस एक सोच......


आज विश्व के हर मनुष्य के मन में बस यही प्रश्न उठ रहा है कि - 'हे प्रभु! किस जन्म की सज़ा दे रहे हैं आप हमें, जहाँ न हम अपनी पसंद से खा सकते है और न ही बाहर जा सकते है। न किसी से मिल सकते है और न ही बाहर बैठकर दूसरे किसी की चुगली कर सकते है।' मुझे लगता है कि - इस प्रकार के न जाने कितने प्रश्नों को सुनते-सुनते भगवान भी थक चुके थे, तभी तो मनुष्य को अपने घर से बाहर निकलने की पाबंदी प्रकृति ने स्वयं लगा दी। शायद प्रकृति अपने नियमों के टूटने के कारण ही हम सभी मनुष्यों से रुष्ट हुई है और वो हमें सबक सीखा रही है कि किस प्रकार शांति के साथ हमें अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। जिससे प्रकृति को किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचे और वो अपने अस्तित्व को बचाने में सफल रहें। 
   हम सभी बुध्दिजीवी प्राणी हैं तो प्रश्न ये भी उठता है कि - क्या प्रकृति अपने असंतुलन होने का बदला हमसे इस प्रकार लेगी, जिसमें हम कोरोना जैसे एक वायरस से संक्रमित होकर अपने जीवन का अंत कर लें या जिस तरह हमने अपनी इच्छापूर्ति के लिए प्रकृति को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और अपने व्यवहार एवं क्रियाओं के द्वारा उसे पल-पल मारा है। क्या वो ऐसा ही व्यवहार हम सबके साथ करेगी?? शायद सच में हमने इसे बहुत ज़्यादा कष्ट पहुँचाया है। जब इसने हमारे आहार के लिए अन्न, फल-सब्जियों और अनेक प्रकार के प्रकृतिक प्रदत्त चीज़ों को बनाया हैं, और तो और सबके जीवन यापन के लिए प्रकृति और पर्यावरण ने आपसी संतुलन भी बनाएं रखा हैं, लेकिन हमने तो अपनी हदें भी पार कर दीं, फिर क्या कहा जाएं। जब हम अपनी जिव्हा के वशीभूत होकर प्रकृति के आहार को त्याग दिया और जीव-जंतु, पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़ों को खाना शुरू कर दिया... फिर तो प्रकृति का सारा संतुलन तो हमने ही बिगाड़ा। जिससे अब हमें उसके द्वारा निर्धारित दण्ड को भोगना ही पड़ेगा। जब तक वह पुनः स्वयं को पहले की भांति संतुलित न कर लें।
कभी-कभी सोचती हूँ तो अजीब लगता है कि - कल तक पशु और पक्षी पिंजरे में रहते थे और हम स्वतंत्रता के साथ उन पर अत्याचार और पर्यावरण में विचरण करते थे.. पर आज हम सभी अपने द्वारा बनाएं गए आलिशान घर, बगला या महल या ये कहें कि यहाँ चाहे राजा हो , रंक हो या फ़कीर हो सभी अपने - अपने घर में कैद हो कर रह गए हैं, और तो और कल तक जो बहुत चहेते बनते थे आज वो लोग हल्की-सी खासी-जुकाम या बुखार हो जाने पर एक - दूसरे के पास आने पर भी भय खा रहे हैं। सच कहूँ तो मुझे तो बहुत डर लग रहा है कि - 'अगर प्रकृति ने अपना क्रोध शांत नहीं किया तो क्या होगा??' ... पर कभी-कभी ये भी महसूस होता है कि - ' एक वायरस ने भारत की सदियों पुरानी सभ्यता और संस्कार का विस्तार करने के लिए सभी को बाध्य कर दिया है और उसके विकास में पूर्ण योगदान भी प्रदान कर रही हैं। जहाँ समय के बदलाव के कारण माता-पिता और उनके बच्चों के मध्य दूरियाँ और रिश्तों में करवाहट बढ़ रही थी। वो सब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा हैं और प्रेम का विस्तार प्रारंभ हो चुका है। वहीं दूसरी ओर हाय, हलो जैसी पाश्चात्य सभ्यता को छोड़कर लोग हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं। और तो और विलासितापूर्ण जीवन को सामान्य जीवन से जोड़ रही हैं। ' पता है भारत में रहने वालों की एक बहुत बड़ी खूबी है कि उन्हें किसी के अन्दर बुराई के साथ - साथ अच्छाई भी दिखाई देती हैं। जैसे मुझे इस कोरोना वायरस में दिखाई दिया। 
                बस एक यही विनती है कि - आप इस विश्वव्यापी भयानक महामारी को हमारे भारत देश से ही नहीं इस पूरे विश्व से लेकर कहीं दूर चली जाइए और फिर दोबारा लौट कर कभी भी मत आइएगा। आप हम सब पर से अपनी कुदृष्टि हटा लीजिए और आपने हमें जो ज्ञान दिया है हम उसे कभी भी नहीं भूलेंगे, लेकिन आप यहाँ से चली जाइए।। 


शिखा सिंह भारद्वाज