देश के पहले प्रधानमंत्री बनाम विश्व के महान लेखक



पंडित जवाहरलाल नेहरु जी देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में तो जाने ही जाते हैं पर वे एक महान लेखक भी थे।" डिस्कवरी आफ इंडिया" उनकी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक है जो  अहमदनगर की जेल में सन 1944 में उनके द्वारा लिखी गयी। यह पुस्तक देश के समृद्ध इतिहास, दर्शन और संस्कृति का दर्पण है। इसमें सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर भारत की आजादी तक विकसित भारत की बहुविध समृद्ध संस्कृति, धर्म और प्राचीन विरासत के अतीत को वैज्ञानिक दृष्टि से जोड़ते हुए अद्वितीय भाषा  शैली में लिखा गया है। यह पुस्तक सभ्यता के क्रमिक विकास, दर्शन ,कला ,सामाजिक आंदोलन, वित्त, विज्ञान और धर्म आदि कई अलग-अलग विषय वस्तु समेटे हुए है। इनकी रचित एक और प्रसिद्ध पुस्तक  है-" लेटर्स फ्रॉम अ  फादर टू  हिज  डॉटर " है ।इन्होंने जेल में रहते हुए 146 पत्र बेटी इन्दिरा को लिखे हैं। इस किताब का हिंदी अनुवाद महान कथाकार उपन्यासकार सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने किया था।
ऐसे महान सहृद- लेखक और निराला से जुडी एक रोचक घटना याद आ रही है।एक बार चीन की यात्रा से नेहरू जी लौटे तो मालाओं से उनका स्वागत सत्कार एक सभागार में हुआ। उस सभा में पहली पंक्ति में कविश्रेष्ठ निराला जी बैठे थे। उन्हें देखकर लगता था कि वह अभी-अभी  अखाड़े से पहलवानी करके लौटें हैं  क्योंकि उनके पूरे शरीर पर मिट्टी और तेल लगा हुआ था और उनके शरीर पर एकमात्र गमछा ही दिखाई पड़ा रहा था। नेहरू जी ने कहा --"मैं चीन गया था ।वहां मैंने एक महान राजा की कहानी सुनी। राजा के दो बेटे थे। एक कुछ कम अक्ल और दूसरा बेहद बुद्धिमान। बच्चे जब बड़े हुए तो राजा ने दोनों को बुलाकर कम अक्ल वाले लड़के से कहा कि तुम राजपाट संभालो क्योंकि तुम केवल यही कर सकते हो। बुद्धिमान और अक्लमंद लड़के से राजा ने कहा कि यह एक बड़े और महान कार्य के लिए पैदा हुआ है ।यह कवि  बनेगा।"  यह कहकर नेहरूजी  ने अपने गले की मालाएं उतारी और मंच से नीचे आकर निराला के पैरों में सम्मान स्वरूप रख दिया। पूरी सभा स्तब्ध रह गयी।
निराला जी तो निराला थे उन्होंने नेहरू को कभी बख्शा नहीं ।"कुकुरमुत्ता "में वे कहते हैं--"
एक थे नव्वाब
फारस गये मगाये थे गुलाब
बडी-बाडी में लगाए
देशी पौधे भी उगाये
रखे माली,कई नौकर
गजनबी का बाग मन हर
लग रहा था
एक सपना जग रहा था
सांस पर तहजबी की
गोंद पर तरतीब की
क्यारियाँ सुन्दर बनी
चमन में फैली घनी
फूलों के पौधे वहां 
लग रहे थे खुशनुमा 
कहीं झरने,कहीं छोटी सी पहाडी
कहीं सुथरा चमन,नकली कहीं झाडी 
आया मौसम,खिला फारस का गुलाब 
बाग पर उसका पडा था रोब-ओ-दाब
वहीं गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता 
पहाडी से सर उठाकर बोला कुकुरमुत्ता --
"अब, सुन बे- गुलाब
भूल मत जो पायी खुश्बू,  रंग-ओ-आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट 
डाल पर इतरा रहा है कैपीटलिस्ट ।"
                    नेहरू जी निराला जी के स्वभाव से वाकिफ थे । वह जानते थे कि निराला सचमुच निराला है और वह  जरूरतमंदों के मददगार हैं कि अपने भविष्य की चिंता भी उनको नहीं रहती। 12 मार्च 1954 को संसद के सेंट्रल हॉल में साहित्य अकादमी का उद्घाटन हुआ। 13 मार्च को नेहरू जी ने साहित्य अकादमी के नवनियुक्त सचिव कृष्ण कृपालनी को निराला के बारे में एक खत लिखा--" निराला पहले ही काफी सृजनात्मक  लेखन कर चुके हैं और आज भी जब अपने रौ में लिखते हैं तो कुछ बेहतर लिखते हैं। निराला ने अपनी किताबों को महज 25, 30 या 50 रूपये पाकर प्रकाशक को दे दिया ।लगभग सारी किताबों के कॉपीराइट भी प्रकाशक को को दे चुके हैं। प्रकाशक तो निराला के किताबों को बेचकर अच्छा खासा धन कमा रहे हैं पर निराला मुफलिसी में जी रहे हैं। निराला का उदाहरण प्रकाश के द्वारा एक लेखक के शोषण का ज्वलंत उदाहरण है।"


नेहरू जी ने  अकादमी से आग्रह किया कि कॉपीराइट कानून में कुछ ऐसे बदलाव करें जिससे भविष्य में लेखकों का कोई शोषण न हो। नेहरु जी ने अकादमी को सुझाव दिया कि निराला को ₹100 की मासिक वृत्ति  दी जाए और वह भी उनके हाथों में ना दे करके उनकी मुंह बोली राखी बहन महादेवी वर्मा को सौंपी जाए जिससे उनकी जीवन की समस्त परेशानियां दूर हो। 16 मार्च को अकादमी के सचिव ने जवाबी खत में इसकी स्वीकृति दे दी। निराला जी  तंगहाली में भी जरूरतमंदों को अपना पैसा ,कपड़े सब दे देते थे। इसीलिए निराला जी के लिए  ₹100 की मासिक वृत्ति की रकम महादेवी वर्मा को सौंपी गई जो नेहरू जी के आदेशानुसार था। यह सब मात्र  3 दिनों में ही आनन-फानन में किया गया।
 आज के भारत में एक कवि की तंगहाली से कोई भी प्रधानमंत्री चिंतित नहीं होगा ना ही उसकी आर्थिक मदद देने की बात समझाते  हुए खत भी  लिखेगा। साथ यह भी सुझाव देगा कि अच्छी तरह से देखभाल कौन कर सकता है और  किसके हाथों में किसके जरिए दी जाए। 
आज के हिंदुस्तान में ऐसा असंभव है।इतना ही नहीं दिनकर जी भी नेहरूजी को राज्यसभा में बेखौफ़ खरी-खोटी सुनाने से गुरेज नहीं  किये ।लेखक देश के लिए,जनमानस के हितार्थ लिखता है , जीता है ।वह स्वतंत्र है अपनी अभिव्यक्ति के लिए पर आज सम्भव नहीं ।आज की विपरीत परिस्थितियों में भी लेखक जी रहा है ,लिख रहा है।
✍इन्दु श्री ...